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भाषा हमारे अस्तित्व का आवरण होती है!

हिंदी भारतीय संस्कृति की धड़कन है,

हमारी जीवंतता का प्रमाण है ! इसकी शक्ति हमें समर्थ बनाती है !कुछ रचने के लिए उस रचना तक पहुंचने और दूसरों तक पहुंचाने के लिए सहजतम और प्रभावशाली माध्यम हमारी भाषा होती है ।

जिस प्रकार हवा पानी और भोजन की हम सबको जरूरत होती है उसी प्रकार भाषा भी हम सबकी मूल जरूरत है !दरअसल भाषा का कोई विकल्प नहीं होता है, भाषा से ही गुजर कर हम सोचते हैं और इससे ही किसी भी। सृजन को आकर मिलता है!हम कह सकते हैं की भाषा हमारे शरीर की आत्मा और हमारे अस्तित्व का लिबास होती है साथ ही आवरण का कार्य भी करती है और दुरावा_ छिपाव को भी संभव बनाती है और हम जो चाहते हैं उसकी अभिव्यक्ति भी संभव बनाती है! जैसे मिट्टी के बर्तन से कुम्हार तरह-तरह के बर्तन बनाता है जिससे भिन्न-भिन्न कम लिए जाते हैं वैसे ही भाषा से भी तरह-तरह के कम लिए जाते हैं सरल शब्दों में कहे कि भाषा कर्तव्य की सीमा है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

भाषा की खासियत यह भी है कि उसका सामर्थ्य विकसनशील और सृजनात्मक है और इसके अर्थ में अनंत हैं! भाषा ही वह दृष्टि है जिससे हम दुनिया को देखते और समझते हैं !उसकी संभावनाओं की श्रृंखलाओं का कोई ओर छोर नहीं होता है , कोई भाषा अकेली नहीं होती है बस प्रयोक्ताओं की दृष्टि से कुछ अधिक व्यापक होती है तो कुछ कम !भाषा रचना भी है और माध्यम भी! आज सामाजिक जीवन की यह विवशता है कि राजनीति भी भाषा के औजार से की जाती है उसी के आधार पर संचार होता है और संवाद और विवाद की घटनाएं भी होती हैं !आज हम लोग सार्वजनिक जीवन और मीडिया में देख पा रहे हैं कि भाषा एक बड़ा लचीला और बहुउद्देशी माध्यम है और उसका उपयोग एवं दुरुपयोग दोनों ही हो रहा है ,भाषा का भी अपना जीवन होता है और वह भी कहीं ना कहीं राजनीति की शिकार होती है आज भाषा की शक्ति को पहचानना और उपयोग करना भी महत्वपूर्ण है! भारत की संविधानस्वीकृत राजभाषा हिंदी की स्थिति भी यही बयान करती है !स्वतंत्रता मिलने के पहले की राष्ट्रभाषा हिंदी को स्वतंत्र भारत में 14 सितंबर 1949 को संघ की राजभाषा के रूप में भारतीय संविधान की स्वीकृति मिली थी यह स्वीकृति सशर्त हो गई , और जो व्यवस्था बनी उसमें हिंदी विकल्प की भाषा बन गई !आज विश्व में संख्या बल में इसे तीसरा स्थान प्राप्त है !12वीं सदी में प्रयुक्त हो रही हिंदी स्वतंत्रता संग्राम के दौर में फूलती फलती रही, हिंदी जो हर भारत भारती का गान कर रही थी स्वतंत्र देश के लिए खतरा बन गई ,सरकारी कृपा दृष्टि से हिंदी को योग्य बनाने के लिए तरह-तरह के इंतजाम भी शुरू किए गए प्रशिक्षण की व्यवस्था हुई, हिंदी भाषा अध्ययन और शोध के कुछ राष्ट्रीय स्तर पर संस्थान भी खड़े किए गए, प्रदेश स्तर पर हिंदी अकादमी और विश्वविद्यालय भी स्थापित हुए !हिंदी लेखकों और सेवकों को प्रोत्साहित करने के लिए नाना प्रकार के पुरस्कारों की भी व्यवस्था हुई साथ ही संसदीय राजभाषा समिति देश में घूम घूम कर हिंदी की प्रगति का जायजा लेती है, हिंदी की सलाहकार समितियां भी है जिसमे हिन्दी में कामकाज को बढ़ावा देने का संकल्प दोहराया जाता हैं, हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए सन 1975 में विश्व हिंदी सम्मेलन की जो शुरुआत हुई इसकी कड़ी भी आगे बढ़ रही है! आज यह संतोष की बात है कि माननीय अटल बिहारी वाजपेई ,श्रीमती सुषमा स्वराज और हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने हिंदी की अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति को भली भांति प्रभावी और प्रामाणिक ढंग से रेखांकित किया है! संचार के कार्यक्रम में हिन्दी को ज्यादा जगह मिल रही है !कई गैर सरकारी हिंदीसेवी संस्थाओं और संगठनों ने शुभ संकल्प के साथ काम शुरू किया था, परंतु अब उनमें से अधिकांश की स्थिति संतोषजनक नहीं रह गई है,इसका मुख्य कारण संसाधनों का अभाव है!
एक सशक्त भाषा को शुरूवात में सशक्त करने परंतु वास्तव में उसके पर कुतरने के लिए हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा या हिंदी मास का आयोजन चल पड़ा!

अब विभिन्न संस्थान 14 सितंबर कुछ आयोजन कर हिंदी के प्रति श्रृद्धा सुमन अर्पित कर अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह करते हैं! एक सशक्त भाषा के प्रति सभ्य समाज का इस तरह का व्यवहार या साबित करता है कि हिंदी को लायक बनाना कितना मुश्किल काम है ! आज अपनी भाषा के प्रति हमारी दृष्टि ऊपेक्षा की ही बनी रही है! आज मन में अपनी भाषा के लिए प्रतिष्ठा का भाव नहीं रहा! प्रतियोगिता और पुरस्कार सब किया जाता है पर उसे कर्म के स्तर पर जीवन में अपनाने के लिए हम तैयार नहीं हैं! गौर करने वाली बात यह है कि अपनी भाषा में अध्ययन न कर उधार की अंग्रेजी के अभ्यास साथ बहुसंख्यक छात्र समुदाय में सोचने की अक्षमता बढी है !मौलिकता और रचनाशीलता में कमी आई है! रटा हुआ ज्ञान पढ़ा पढ़ाया जा रहा है ! इससे बाहर नज़र डाले तो आज अनुभूति और अभिव्यक्ति जिस सहजता और भाव के साथ अपनी भाषा में होती है वो और किसी में नहीं ! वस्तुत: रचनाशीलता जीवन की निरंतरता का पर्याय होती है हमारे होने और न होने के लिए हमारी सृजन शक्ति ही जिम्मेदार होती है! किसी व्यक्ति या समुदाय से उसकी अपनी भाषा का छिनना और मिलना उसके अपने अस्तित्व को खोने पाने से कम महत्व का नहीं होता है !समाज और राष्ट्र को सामर्थ्यशील बनाने के लिए उसकी अपनी भाषा को शिक्षा और नागरिक जीवन में स्थान देने के लिए गंभीर प्रयास जरूरी है ! अंत में निष्कर्ष यही है कि नई शिक्षा नीति की संकल्पना में मातृभाषा में शिक्षा का प्रावधान इस दृष्टि से एक बड़ा कदम है।

– डॉ अंजना सिंह (असिस्टेंट प्रोफेसर हिंदी) 

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Author: fastblitz24

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